सबसे पहले मैं “जश्न-ए-रेख़्ता” के इस अजीम मंच पर, गुलज़ार साहब, और जावेद अख्तर साहब का खैर मख्दम करता हूँ । आज हम “जश्न-ए-रेख़्ता” ही नहीं, बल्कि “जश्न-ए-भारतीयता”और “जश्न-ए-हिंदुस्तानियत” मना रहे हैं।
गुलज़ार साहब और जावेद साहब, दो ऐसी शख्सियतें हैं, जिन्हें महज़ Bollywood प्रेमी ही नहीं, बल्कि, हर वो शख्स, जो उमदा शायरी सुनना-पढ़ना चाहता है, प्यार करता है। इनके अंदाजे-ए-बयां का कोई सानी नहीं है।
जावेद साहब ने तो इस मंच को कई बार रोशन किया है..., और उनसे मेरी थोड़ी सी मुलाकात भी है l
एक जमाने से हसरत थी कि लफ्ज़ों के जादूगर, गुलज़ार साहब से रूबरू होऊं..., और आज मेरी यह ख्वाहिश पूरी हो रही है। मैं न सिर्फ उनसे रूबरू हूं, बल्कि उनके साथ मंच भी साझा कर रहा हूं। इसके लिए, मैं संजीव सराफ और हुमा जी का शुक्रगुजार हूं..., और अपने आप को बहुत खुशनसीब मानता हूं ।
गुलज़ार साहब की लेखनी के अथाह सागर से अगर एक मोती चुनना चाहूं तो क्या चुनूं? आज जब हम घर से निकले, तो चांद पर नजर पड़ी। इत्तफाकन आज पूनम की रात है, और चांद अपनी पूरी जवानी पर है। अचानक गुलजार साहब की लिखी हुई ये पंक्तिया याद आगई।
“बदरी हटा के चंदा, चुपके से झांके चंदा
तोहे राहु लागे बैरी, मुसकाय जी जलाई के”
वाह गुलज़ार साहब- आपके ये अशार, महताब के साथ, इंसानी रिश्ते को, जिस तरह जोड़ते है, वो लाजवाब है। आप शायर लोग कैसे अपनी कलम से लिख लेते हैं, लोगों के अहसासों को, ख्वाबों को, अरमानों को। यह हम जैसे मामूली आदमियों को समझना मुश्किल है ।
हर दिल अज़ीज़, उस्ताद-ए-सुख़न, गुलज़ार साहब, आप बहुमुखी प्रतिभा के मालिक हैं। महज़ शायरी या Poetry ही नहीं, आपका साहित्यिक ज्ञान भी, अथाह और बेमिसाल है। जहां गुलज़ार साहब कहते हैं
शाम से आंख में नमी सी है
आज फिर आपकी कमी सी है
दफ्न कर दो हमें, कि सांस आए
नब्ज़ कुछ देर से, थमीं सी है
वहीं जावेद साहब लिखते हैं-
मैं और मेरी तनहाई, अक्सर ये बातें करते हैं..
तुम होती तो कैसा होता
तुम ये कहती, तुम वो कहती
तुम इस बात पे हैरान होती, तुम उस बात पे कितनी हंसती
तुम होती तो ऐसा होता, तुम होती तो वैसा होता
मैं और मेरी तनहाई, अक्सर ये बातें करते हैं
किसी ने क्या खूब कहा है –
आपकी कलम से निकले हैं वो अहसास
जो दिल को छू जाते हैं,
आपके शब्दों में खोकर, हम खुद को पाते हैं
आज आप दोनों की मौजूदगी में, बांसेरा पार्क और भी हसीन..., और भी गुलज़ार हो गया है। आज इसकी फिज़ा में एक हसीन-सी रवानी है, एक खुशनुमा-सा अहसास है, जो उर्दू की खूशबू, हिंदुस्तानी तहजीब..., और मोहब्बत की गर्माहट से महक रहा है।
दोस्तों, आज का ये जश्न, पहले हिंदवी, फिर रेख़्ता और अब उर्दू का है। यहां इतनी बड़ी तादाद में आप सभी की मौजूदगी, इस बात की तसदीक करती है, कि आप सब उर्दू के कद्रदान हैं।
किसी ने दुरुस्त ही फरमाया है कि-
उर्दू जिसे कहते हैं, तहजीब का चश्मा है
वो शख्स मोहज्जब है, जिसको ये जुबां आई
गुलज़ार साहब, आपने अपने शब्दों से न सिर्फ़ गाने लिखे, बल्कि ज़िंदगी के सबसे महीन अहसासों को भी, आवाज़ दी है। आपके गीतों, आपकी नज़्मों..., और आपकी कहानियों में, हर पीढ़ी, अपना अक्स देखती है।
आपके अश-आर, हमारी ज़िंदगी में बरसों से आईना, मरहम और मुस्कान बने हुए हैं।
गुलज़ार साहब की नज्मों से हमने जाना कि, इश्क़, बारिश, धूप, ख़ामोशी - हर चीज़ की अपनी “ज़ुबान” होती है। ....,और बस एक सच्चा शायर ही उन आवाज़ों को सुन और समझ सकता है।
उर्दू की दुनिया बड़ी नर्म, बड़ी शरीफ़, और बड़ी अदबी दुनिया है। ये ज़बान “दस्तक” नहीं देती, बल्कि धीमे से दिल में उतर जाती है। आज का ये जश्न, सिर्फ़ अल्फ़ाज़ों का नहीं, बल्कि हमारी तहज़ीब..., और हमारी रूह का जश्न है।
रेख्ता फाउंडेशन ने जिस ख़ुलूस से, उर्दू की विरासत को संभाला और संवारा है, उसकी मिसाल कम ही देखने को मिलती है।
इसने हमें याद दिलाया है, कि जबानें, दीवारें नहीं खड़ी करतीं, दिलों को जोड़ती हैं..., और रिश्तों को पिरोती हैं।
इसके लिए मैं, संजीव सराफ साहब और हुमा जी का एक बार फिर से शुक्रिया अदा करता हूं।
दिल्ली, हमेशा से ही अदब का मरकज़ रही है।
मीर की सादगी, गालिब की नजाकत, ज़ौक की नफासत, ज़फर का दर्द, ये सब इसी मिट्टी की पैदाइश हैं।
मुझे यह कहने में जरा भी गुरेज़ नहीं है कि, आज इसी सिलसिले को “जश्न-ए-रेख़्ता” आगे बढ़ा रहा है।
मैं तमाम नौजवानों से कहना चाहूंगा, कि उर्दू सिर्फ “शायरी” नहीं, बल्कि एक सलीका है, उर्दू गुफ्तगू की नफासत ...., और दिलों के दरमियान पुल है।
इसे सीखिए, बोलिए..., और अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इसे जगह दीजिए, क्योंकि उर्दू ज़ुबान ही नहीं, तर्ज़े ज़िन्दगी है, जो ख़ालिस तौर पर हिन्दुस्तानी है।
जैसे हिंदी, तमिल, तेलगु, बंगाली, पंजाबी, मलयालम, असमिया, सिंधी, उड़िया वगैरह, सिर्फ भारतीय भाषायें ही नहीं, बल्कि भारतीय जीवन पद्धतियों को दर्शातीं हैं, उसी तरह उर्दू भी, उसी हिन्दुस्तानी जीवन पद्धति को दर्शाती है..., और हमारी ज़ुबानी रवायत का हिस्सा है।
कुछ ही दिन पहले, हमारे हर दिल अज़ीज वज़ीरे आज़म, जनाब नरेन्द्र मोदी साहब ने, भारतीय जुबानो के मुतालिक कहा था, कि दुनिया का कोई भी देश अपनी भाषाओं – अपनी जुबानों की बेकद्री नहीं करता है।
उन्होंने कहा कि जापान, चीन और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने, कई पश्चिमी बातों को अपनाया, लेकिन अपनी मूल भाषाओं से कभी समझौता नहीं किया।
उन्होंने यह भी कहा कि, सरकार मैकाले द्वारा थोपी गई अंग्रेजी भाषा के विरोध में नहीं है, बल्कि भारतीय भाषाओं का, दृढ़ता से समर्थन करती है।
मेरा साफ़ तौर पर मानना है कि, हमने अंग्रेजी, जोकि, न कभी हिन्दुस्तानी ज़ुबान थी, और न कभी होगी, उसको अपनी जुबानों के मुकाबले, ज्यादा तरज़ीह दी। इसका अंजाम ये हुआ कि, उर्दू समेत हमारी दूसरी ज़ुबाने भी लगातार पिछड़ती चली गईं।
लेकिन पिछले कुछ सालों में, इस चलन में बदलाव आया है।
हमें याद रखना होगा कि, भाषाएं जन्म लेती हैं, बदलती हैं, और कई बार मर भी जाती हैं। उन्हें जिंदा वही रखते हैं, जो उन्हें बोलते, गाते और पढ़ते हैं। इसलिए दिल्ली की इस सांस्कृतिक विरासत को भी, महफूज़ रखना, हम सभी की जिम्मेदारी है।
अंग्रेजी काफी है, इजहार-ए-इश्क में
जज्बातों को बयां करने के लिए
मगर दर्द-ए-हिज्र को बयां करना हो तो,
उर्दू के अल्फाजों को सहारा बना लेना
मैं आप सभी, ख्वातीनों हज़रात को, गुलजार साहब और जावेद अख्तर साहब के रूबरू होने से ज्यादा देर नहीं रोकूंगा। मैं, आप से इजाजत लेता हूँ..., और हिंदुस्तानियत के इस खूबसूरत जश्न की कामयाबी की, दिल की गहराइयों से दुआ करता हूं।
शुक्रिया,
जय हिन्द!
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THE LIEUTENANT GOVERNOR, DELHI
