राजनिवास, दिल्ली के उपराज्यपाल का आधिकारिक निवास और सह कार्यालय है जो 6 लुडलो कैसल रोड (पहले यह राजनिवास मार्ग के नाम से जाना जाता था)पर स्थित है। राजनिवास का इतिहास दो सदियों से दिल्ली के मुख्य प्रशासनिक केंद्र के रूप में रोचक उतार-चढ़ाव का गवाह रहा है। 1803 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली के मुगल दरबार में रेजिडेंट की स्थिति हासिल की और1813तक ब्रिटिश सरकार के राजनीतिक एजेंट के रूप में इस कंपनी ने अपना रूतबा और बढ़ा लिया था। इस वर्ष तक मुगल साम्राज्य अपने पतन की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहा था और राजनीतिक एजेंट के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी ही वास्तविक प्रशासक की भूमिका में आ चुकी थी।
ऐसे में ब्रिटिश सरकार के रेजीडेंट के रूतबे के अनुरूप दिल्ली में उनके लिए एक ऐसे भवन की तलाश थी जिसमें कार्यालय और आवास की जरूरत को एक साथ पूरा किया जा सके। इसके लिए वर्ष 1813 में रेजिडेंसी सर्जन सैमुअल लुडलो के लिए बनाया गया भवन (लुडलो कैसल) किराए पर लिया गया जो 1832 से 1857 तक दिल्ली के रेजिडेंस का आधिकारिक आवास बना रहा।1831 में डॉ. लुडलो का दिल्ली से बाहर ट्रांसफर होने की वजह से यह खाली भी था।
1857 के विद्रोह के बाद दिल्ली को संप्रभू रियासत बनाने के बजाय इसे पंजाब प्रांत के अंतर्गत एक डिवीजन बनाया गया। इसके बाद दिल्ली में ब्रिटिश इंडिया कंपनी के एजेंट के रूप में जो भारी-भरकम पद 'रेजिडेंट' बनाया गया था, उसे बदलकर अब मामूली कमिश्नर कर दिया गया था। यानी दिल्ली का शासन अब एक डिविजनल कमिश्नर या आयुक्त के हाथों में आ गया था। लुडलो कैसल 1857 में बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया लेकिन जल्द ही इसका जीर्णोद्धार कर दिया गया और यह दिल्ली के डिविजनल कमिश्नर का आधाकारिक आवास सह कार्यालय बना रहा। 1886 में पाया गया कि डिविजलनल कमिश्नर के सरकारी आवास सह कार्यालय के लिए लुडलो कैसल बहुत बड़ा भवन है और इसका किराया भी बहुत ज्यादा है। इसलिए दो छोटे घरों को किराया पर लेने का निर्णय लिया गया। इनमें से एक लुडलो कैसल के ठीक पीछे था, जो कमिश्नर के आवास के लिए सेठ लखमी चंद से लिया गया था और दूसरा घर यहां से कुछ ही दूरी पर था, जो उनके कार्यालय के लिए शेख हफीजुल्लाह से लिया गया था। और पढ़ें
इस प्रकार दिल्ली के मुख्य प्रशासक का सरकारी आवास वर्तमान जगह से थोड़ा और नजदीक आ गया। हालांकि, वास्तव में यह घर 1897 में 6 लुडलो कैसल रोड पर शिफ्ट हुआ था, जब सरकार ने लाला संगम राय से अदला-बदली के तहत यह जमीन खरीदी और वहां कमिश्नर के लिए आवास का निर्माण किया। 1897 में इसी जगह पर कमिश्नर ऑफिस के लिए भवन बनाने की योजना बनाई गई ताकि आधिकारिक आवास और ऑफिस एक साथ हो सके।
हालांकि सच्चाई यह थी कि शेख हफीजुल्लाह बार-बार किराया बढ़ाने की मांग कर रहे थे। इसलिए 1857 से ही दिल्ली में आयुक्त कार्यालय के लिए अलग से नई इमारत बनाने की योजना बनाई जा रही थी। लेकिन सटीक जगह पर सर्वसम्मति नहीं बन पा रही थी। आयुक्त कार्यालय के लिए तीन स्थानों पर विचार किया गया था। पहला स्थान था मेडेन होटल के बगल का एक प्लॉट जबकि दूसरा स्थान दिल्ली म्यूनिसपल ब्यॉज हाई स्कूल के प्लेग्राउंड पर बिल्डिंग बनाने का था। तीसरी जगह थी कुदसिया गार्डन का एक हिस्सा थी, जहां 1903 में दिल्ली दरबार के समय एक एग्जीबिशन के लिए पवेलियन भी बनाया गया था। लेकिन इन तीनों स्थानों को लेकर कोई आम सहमति नहीं बन सकी और इस कारण दो दशक तक आयुक्त कार्यालय के लिए भवन का निर्माण नहीं हो सका। 1904 तक किसी न किसी कारण से भवन बनाने का मामला टलता रहा लेकिन बाद में आखिरकार आयुक्त के आवास सह कार्यालय के लिए बिल्डिंग निर्माण को मंजूरी मिल ही गई।
1905 में 6 लुडलो कैसल रोड पर 21,772 रुपये की लागत से आयुक्त कार्यालय सह आवास का निर्माण के लिए दिल्ली प्रांतीय डिवीजन के कार्यकारी अभियंता राय साहब बिशंभर नाथ को नियुक्त किया गया। यही भवन अगले छह दशक तक पहला राजनिवास बना। 1906 में यह भवन बनकर तैयार हो गया लेकिन ऑफिस में रैक और अलमारी लगाने के लिए 6,179 रुपये की जरूरत थी जिसे मंजूर होने में एक साल का वक्त लग गया। 1 अप्रैल 1907 को कमिश्नर का दफ्तर भी इसी जगह पर आ गया।
1911 में दिल्ली अब पंजाब प्रांत के अंतर्गत छोटा सा डिवीजन नहीं रहा था बल्कि यह एक राष्ट्रीय राजधानी बन चुकी थी। इसके परिणामस्वरूप दिल्ली में प्रशासन का प्रमुख फिर से चीफ कमिश्नर के रूप में नामित होने लगा। चीफ कमिश्नर ही दिल्ली पर 1912 से प्रशासन करता रहा जो आजादी के समय 1947और फिर1966 तक कायम रहा। इस पूरी अवधि के दौरान 6 लुडलो कैसल दिल्ली के चीफ कमिश्नर का आधिकारिक आवास सह कार्यालय बना रहा। 1966 में दिल्ली एडमिनिस्ट्रेटिव एक्ट के तहत दिल्ली संघ शासित राज्य बन गया और तब से चीफ कमिश्नर की जगह लेफ्टिनेंट गवर्नर को दिल्ली का मुख्य प्रशासक बनाया गया। इसके साथ ही इस भवन का नाम बदलकर राजनिवास कर दिया गया और मार्ग का नाम भी बदल गया।
1906 से 1988 तक राजनिवास बिल्डिंग दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर का आधिकारिक आवास सह कार्यलय बना रहा। हालांकि जब इस भवन की स्थिति जर्जर होने लगी तो पहले 18 अकबर रोड और बाद में 3 मोतीलाल नेहरू में इसे स्थांतरित करने का निर्णय लिया गया। लेकिन यह व्यवस्था कुछ समय के लिए अस्थायी रूप से ही रही। जल्द ही राज निवास अपने नए अवतार में वापस आ गया। लेकिन 1993 में पुराने राजनिवास को गिरा दिया गया और उसकी जगह नए राजनिवास के निर्माण की जिम्मेदारी स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर के पूर्व प्रोफेसर राम शर्मा को सौंप दी गई।
20 जुलाई 1995 को भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने नए राजनिवास का शिलान्यास किया। इस वर्तमान शानदार राजनिवास का निर्माण आर.के. शर्मा एंड एसोसिएट्स ने किया। शर्मा ने इसे 'आधुनिक हवेली' कहा था। राजनिवास को इस तरह से बनाया गया है कि इसमें लेफ्टिनेंट गवर्नर का आधिकारिक आवास और कार्यालय एक साथ एकीकृत है और इसमें सार्वजनिक तथा निजी कामों के लिए अलग-अलग खंड हैं। इस भवन में सार्वजनिक समारोहों का भी आयोजन किया जाता है।
1997 में यह महसूस किया गया कि इतना बड़ा नया भवन एक व्यक्ति के इस्तेमाल के लिए बहुत बड़ा है। इसलिए यह सुझाव दिया गया कि इस भवन को राज्य का अतिथि गृह बना दिया जाए। वहीं लेफ्टिनेंट गवर्नर का आवास 3 मोतीलाल नेहरू प्लेस को कर दिया जाए। हालांकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्रीय राजधानी का मुख्य प्रशासक होने के नाते मोतीलाल नेहरू प्लेस में लेफ्टिनेंट गवर्नर का रहना उनके कद के अनुरूप नहीं था। इसलिए इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया और 2004 में एक बार फिर यह नया भवन दिल्ली के उपराज्यपाल का आधिकारिक आवास सह कार्यालय बन गया। इस प्रकार राजनिवास आज भी देश और शहर के अपने 200 साल के इतिहास संजोए हुए अटल खड़ा है।
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